
PATNA/MANTHAN Today
राजनीति और धर्म दो अलग विषय है.धर्म और राजनीति के घालमेल ने समाज को दूषित कर दिया है.दोनों का कार्यक्षेत्र अलग है.धर्मगुरु की अलग ज़िम्मेदारी है और राजनीतिक नेताओं का दायित्व अलग है.दोनों को अलग-अलग दिखना चाहिए.इस मुद्दे को गम्भीरता से उठा कर अशफाक़ रहमान ने मुस्लिम समाज में एक अलग बहस छेड़ दी है.आज यानी रविवार को बिहार और देश के तमाम उर्दू अख़बारों ने इस मुद्दे को प्रमुखता से छापा है.अशफाक़ रहमान अल-हम्द ट्रस्ट के सरपरस्त हैं.इनकी पहचान एक विचारक,सोशल एक्टिविस्ट और राजनीतिज्ञ की भी है.माना जा रहा है कि मज़हबी पेशवा(धर्मगुरु)और सियासी रहबर(राजनेता)को अलग-अलग होने का इनके बयान का मुस्लिम समाज पर दूरगामी असर पड़ेगा.

अशफाक़ रहमान ने बयान किया दिया है?
जिन देशों में शरीयत का कानून है,यानी इस्लामी शासन है.वहां भी धर्मगुरु अलग होता है और राजनीतिक नेता अलग.लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां भारत में दोनों एक ही होते हैं.यानी जो मज़हबी पेशवा हैं वह राजनीति भी करते हैं अथार्त धर्मगुरु के सिंहासन पर भी बने रहना चाहते हैं और राजनीतिक पद की कुर्सी पर भी विराजमान होना चाहते हैं. अशफाक रहमान भारत में मुसलमानों के राजनीति में पिछड़ने की असल वजह धर्म और राजनीति के घालमेल को मानते हैं और इसके लिए वह मौलाना के उस ग्रूप को मानते हैं जो मज़हबी ज़िम्मेदारी को छोड़ कर पद,पैसा के फ़र्ज़ीवाड़ा में लगे रहते हैं.अशफाक़ रहमान ने ऐसे मौलाना को ‘फ़र्ज़ी’बताया है जिनका दीन यानी धर्म से कोई सरोकार नहीं है.जो पद के ठेकेदार बने हुए हैं और इमामत ए कुबरा और इमामत ए सुग़रा दोनों पर ये काबिज हैं.ज़ाहिर से बात है मुसलमानों में राजनीतिक नेतृत्व का उदय कहां से होगा? मुस्लिम नेतृत्व को नुक़सान गैरों से नहीं है, असल में मुस्लिम नेतृत्व को कुचलने वाले यही ये फ़र्ज़ी मौलाना हैं.जिनका चेहरा मुसलमानों जैसा है, लेकिन हरकतें भिखारी जैसी है.कुर्सी की भीख मांगते फिरते हैं.ज़कात और फितरा का पैसा खाकर इनका दिल काला हो गया है.

सलाह-मशविरा किये बेग़ैर आंदोलन शुरू कर देते हैं
अशफाक रहमान कहते हैं कि क़ौम और मिल्लत से बिना सलाह-मशविरा किए ये हर वक़्त कोई न कोई आंदोलन शुरू कर देते हैं और मुस्लिम उम्मत को मुश्किल में डाल देते हैं.हद तो यह है कि जहां राजनेताओं को आगे आकर लड़ाई लड़नी चाहिए, वहां भी ये लोग खुद को आगे रखते हैं.राजनेता समझ बैठते हैं.जबकि इनकी हैसियत एक राजनीतिक दलाल से ज्यादा कुछ नहीं होती.अशफाक रहमान का कहना है कि ये इतने मक्कार हैं कि धार्मिक नेता के पद पर भी क़ाबिज़ रहना चाहते हैं और राजनीतिक कुर्सी पर भी.मुस्लिम नेतृत्व को ये कुचल देना चाहते हैं.अगर भारत में मुस्लिम नेतृत्व नहीं पनप सका, तो इसके लिए कोई और नहीं, बल्कि ये फ़र्ज़ी मौलाना जिम्मेदार हैं.

पहले फ़र्ज़ी मौलानाओं का गिरेबान पकड़ना चाहिए.
क़ौम को कथित सेकुलर पार्टियों को क़सूरवार मानने के बजाय इन फ़र्ज़ी मौलानाओं का गिरेबान पहले पकड़ना चाहिए और कहना चाहिए कि धार्मिक मामले तुम संभालो, राजनीति हम देख लेंगे.धार्मिक नेता भी तुम बने रहो और राजनीतिक नेता भी तुम ही रहो, यह नहीं चलेगा.अशफाक रहमान कहते हैं कि ये दोनों मोर्चे पर नाकाम हैं.राजनीति में दलाली इनका पेशा है और धर्म के मामले में भी ये शून्य हैं.पूरी कौम को इन लोगों ने तबाह कर दिया है.मसलक,मनसब में बांटकर क़ौम का शीराजा बिखेरने वाले इन फ़र्ज़ी मौलानाओं की एक भीड़ आ गई है, जिसमें क़ौम गुम हो गई है और मिल्लत का मिशन, मक़सद खो गया है.जब तक धर्म और राजनीति को अलग नहीं किया जाता,दोनों लोग अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी नहीं सम्भालते,जब तक फ़र्ज़ी मौलनाओं को हाशिए पर नहीं डाला जाता है भारत में मुस्लिम नेतृत्व की बात छोड़ देनी चाहिए.आप कुछ सियासी दलाल पैदा कर सकते हैं,लीडरशिप नहीं.

अशफाक़ रहमान की इस सोच का मुसलमानों पर कितना असर पड़ेगा यह तो नहीं मालूम.लेकिन उन्होंने जिस गहराई के साथ इस मुद्दे को उठाया है यदि यह धरातल पर उतर गया यानी मज़हबी पेशवा और सियासी रहबर समन्वय के साथ अलग-अलग हो कर काम करने लगे तो समुदाय का कायाकल्प हो सकता है.