सेराज अनवर
पटना:आज 6 दिसंबर है.1992 को आज ही के दिन जम्हूरियत,सेक्यूलरिज़्म और संविधान का एक ख़ूबसूरत धरोहर बाबरी मस्जिद अयोध्या में बलपूर्वक गिरा दी गयी.धरोहर इसलिए की पांच सौ साल पुरानी थी.हिंदू-मुस्लिम एकता की निशानी थी.हिंदुओं के आग़ोश में मुसलमानों की मस्जिद बुलंदी के साथ खड़ी थी.यही भारतीय लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है.
इसी ख़ूबसूरती की परिकल्पना कवित्रि लता हया ने अपनी शायरी में की
“ए काश!इस मुल्क में ऐसी फिज़ा बने
मंदिर जले तो रंज मुसलमान को भी हो
पामाल होने पाए न मस्जिद की आबरू
ये फिक्र मंदिर के निगहबान को भी हो”
दीगर बात है कि नफरत इतना घोल दिया गया है कि प्रतिशोध में नई नस्ल भड़क रहा है,भड़काया जा रहा है.
भारतीय मुसलमान भी बाबरी मस्जिद से आगे नहीं निकल सके.लोकतंत्र,सेक्यूलरिज़्म,संविधान,सुप्रीम कोर्ट(संघ ने मस्जिद पर आंच नहीं आने का शपथ भरा था)पर हमला को अल्लाह के घर पर हमला बताते रहे.बेशक,मस्जिद अल्लाह का घर है और वही रखवाला भी है.मगर मेरा एक सवाल है.अल्लाह के घर का सौदा करने का अख़्तियार उलेमा को किसने दिया?पिछले साल बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णायक फैसला आने से पूर्व संघ के साथ उलेमा किस हक़ से मीटिंग में बैठ रहे थे.क्यों पहले ही कह दिया,सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमन्ना,सदक़ना मान लेंगे?
लड़ाई लोकतंत्र की थी,लोकतांत्रिक तरीक़े से ही लड़ना था.धर्मनिरपेक्षता को मज़बूती से कठघरे में खड़ा करना था.संविधान की दुहाई देनी थी,जो संविधान सभी धार्मिक समूहों को मज़हबी आज़ादी का बराबरी का हक़ देता है.सुप्रीम कोर्ट के अवमानना पर सवाल खड़ा करना था.क्या मुसलमान ऐसा कर पाये?सिर्फ 6 दिसंबर के दिसंबर अपना स्टेटस,पोस्ट काला करने के सिवाय लोकतंत्र पर फिर हमला न हो,संविधान की धज्जियां ने उड़े,जम्हूरियत पामाल न हो,सेक्यूलरिज़्म महफ़ूज़ रहे ,ऐसी कोई ठोस पहल समुदाय ने की?बाबरी मस्जिद पर हमने सिर्फ रोना-धोना किया,आज भी आंसू ही बहा रहे.मातम मनाने से क़ौमों की तक़दीर नहीं बदलती.आंसू पोंछ कर जो खड़ा हो जाये,उस क़ौम को कोई रोक भी नहीं सकता.