SERAJ ANWAR/MANTHAN TODAY
पूरे भारत में,उर्दू तहरीक की ज़मीन बिहार रही है.70 और 80 के दशक में उर्दू चुनाव का एजेंडा बन गयी.पहली बार देश में कोई भाषा चुनावी मुद्दा बना था.आंदोलन के नतीजे में,बिहार पहला राज्य है ,जहां उर्दू को सबसे पहले द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्रदान हुआ. डॉ. जगन्नाथ मिश्रा जब दूसरी बार 1980 में बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने 10 जून को अपने कैबिनेट की पहली बैठक में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने का फैसला लिया.हालांकि,उनके इस फैसले का काफी विरोध हुआ.उर्दू वालों ने उन्हें मीर ए उर्दू के ख़िताब से नवाज़ा था.जबकि,उर्दू विरोधियों ने उन्हें मौलवी जगन्नाथ मिश्रा कह कर चिढ़ाया था.उस वक़्त उर्दू तहरीक अपने चरम पर थी. पहली बार उर्दू को चुनावी मुद्दा बनाया गया था.गांव-गांव में उर्दू तहरीक चल पड़ी थी.लोग सड़क पर थे.धरना-जुलूस चल रहा था.ग़ुलाम सरवर,बेताब सिद्दीकी,शाह मुश्ताक़,तक़ी रहीम,अब्दुल मोग़नी आदि उर्दू के झंडाबरदार थे.इनकी अगुआई में उर्दू बिहार में परवान चढ़ चढ़ी.मगर उर्दू को बिहार में दूसरी सरकारी ज़बान का दर्जा हासिल होने के बाद उर्दू तहरीक आहिस्ता-आहिस्ता सुस्त पड़ गयी.उर्दू अंज़ूमन दो हिस्सों में बंट गयी.एक का नेतृत्व ग़ुलाम सरवर ने किया और दूसरे की कमान अब्दुल मोग़नी ने सम्भाल ली.

ग़ुलाम सरवर,अब्दुल मोग़नी अब अशरफ़ फ़रीद
आज जब न ग़ुलाम सरवर हैं न अब्दुल मोग़नी.उर्दू अपने हाल पर आंसू बहा रही थी तो अश्क पोंछने एक शख़्सियत फिर नमूदार हुआ.उर्दू के मौजूदा झंडाबरदार का नाम अशरफ़ फ़रीद है.इन्होंने फिर से उर्दू तहरीक में रूह फूंकने के लिए उर्दू एक्शन कमिटी का गठन किया.इस संगठन का अशरफ़ फ़रीद अध्यक्ष हैं.यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अस्सी के दशक के बाद विधानसभा चुनाव से पूर्व उर्दू तहरीक एक बार फिर अंगड़ाई ले रही है.अशरफ़ फ़रीद उर्दू के बड़े सहाफ़ी और कौमी तंज़ीम के सम्पादक भी हैं.उर्दू तहरीक को आयाम देने केलिए इन्होंने अख़बार के सफहों को वक़्फ कर दिया है.बिहार में ऐसे तो उर्दू का एक सरकारी और एक ग़ैरसरकारी संगठन भी है.लेकिन सबसे सशक्त और सक्रीय संगठन उर्दू एक्शन कमिटी ही है.कई ज़िलों और प्रखंड स्तर पर कमिटी का गठन भी किया गया है.अशरफ़ फ़रीद के नेतृत्व में उर्दू एक्शन कमिटी ने उर्दू के विकास के लिए ठोस क़दम उठाये हैं.

उर्दू को फिर से चुनावी एजेंडा बना दिया
उर्दू आज भी चुनावी एजेंडा है.उर्दू एक्शन कमिटी ने चुनावों में स्पष्ट प्रस्ताव पारित किया कि जो उम्मीदवार या दल चुनाव प्रचार में उर्दू का प्रयोग नहीं करता उसे चुनाव में नज़रअंदाज़ किया जाये.एक्शन कमिटी के एक्शन से अब अधिक्तर उम्मीदवार और दल उर्दू में बैनर-पोस्टर छापने को विवश हैं.अशरफ़ फ़रीद ने उर्दू की आबरू को ऐसे वक़्त में लाज बचायी है जब सरकार और ग़ैर-उर्दू दां इसकी इज़्ज़त से खिलवाड़ कर रहे थे.शायद इसी लिए अशरफ़ फ़रीद को आबरू ए सहाफत से भी सम्बोधित किया जा रहा है.वह उर्दू का झंडा लेकर ऐसे वक़्त में खड़ा हुए जब लगा कि अब बिहार में उर्दू तहरीक इतिहास की बात हो जायेगी.वह उठे और मज़बूती से उठे.उर्दू के परचम को निकाला और बिहार की फ़िजा में उसी आब-ताब के साथ लहरा दिया जिस तरह अस्सी के दशक में उर्दू तहरीक अपने चरम सीमा पर थी.यह तो नहीं कह सकते कि अशरफ़ फ़रीद उर्दू तहरीक के आख़री सतुन हैं लेकिन यह कहा ही जा सकता है कि उन्होंने उर्दू तहरीक को जिस रवानी के साथ ज़िंदा किया है उसकी गूंज देर तलक तक रहेगी
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं ‘दाग़‘
हिन्दोस्तां में धूम हमारी जुबाँ की है !!

