SERAJ ANWAR
देश आज अपने प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को याद कर रहा है.उनकी 136 वीं जयंती है.बेशक,मौलाना अपने आप में एक यूनिवर्सिटी थे.मक्का में आज ही के दिन पैदा हुए.कांग्रेस के क़द्दावर नेता थे.सबसे लम्बे अर्से तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे.कह सकते हैं पार्टी के प्रवक्ता थे.मुसलमानों के क़ायद नहीं थे.जंग ए आज़ादी में उनकी जिद्दोजहद नेहरू,सरदार पटेल से कम नहीं थी.मगर सत्ता की चाशनी में फंस गये.देश आज़ाद हो रहा था,हालात बहुत ख़राब थे.एक मौलाना ही थे ,जो हिंदुस्तानी मुसलमानों की उम्मीद थे.1947 में भयानक दंगों की मार झेलती क़ौम एक लीडर की तलाश में थी.मौलाना में क़ायद की तमाम खूबियां थीं.उन्होंने दिल्ली जामा मस्जिद की सीढ़ियों से मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका था.मगर उन्होंने क़यादत की जगह वज़ारत चुन ली.मौलाना क़ौम के लिए नज़ीर नहीं,एक वज़ीर बन गये.उनकी सलाहियत के सामने वज़ारत जूते की नोक बराबर थी.
मौलाना आज़ाद का जन्म मक्का में हुआ था.
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म मक्का (सऊदी अरब) में ग्यारह नवम्बर 1888 के दिन हुआ था क्योंकि उनके पिता मौलाना ख़ैरुद्दीन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के कारण और उसमें नाकामयाबी के बाद अंग्रेजी सल्तनत को नापसंद करने की वजह से भारत से मक्का जाकर बस गये थे और उन्हीं के कुछ शागिर्दों ने 1867 में देवबंद धार्मिक संस्थान का निर्माण किया था.
कांग्रेस की जाल में फंस गये
मौलाना आज़ादी की जंग में ‘उम्मतुलवाहिदा’ (एक क़ौम-एक हिंदुस्तान) के पैरोकार थे ,उन्होंने उम्मत को जोड़ कर नहीं रखा.उनकी रहबरी नहीं की.कांग्रेस की जाल में फंस कर मंत्रिमंडल में चले गये.जिसके नतीजे में आज तक मुस्लिम क़यादत नहीं उभर पायी.कोई बता सकता है मौजूदा वक़्त में हिंदुस्तानी मुसलमानों का क़ायद कौन है?आज भी मौलाना के देखा देखी मुसलमान वज़ारत के पीछे भाग रहा है,क़यादत खड़ी नहीं कर रहा.जब किसी क़ौम में क़यादत खड़ी हो जाती है तो वज़ारत क्या,वह ख़ुद बख़ुद चल कर घुटनों पर आ जाती है.आज भारत में छोटी-छोटी क़ौमों के पास अपनी लीडरशिप है,सिवाय 30-35 करोड़ हिंदुस्तानी मुसलमानों के.और इसके लिए सिर्फ़ मौलाना आज़ाद ज़िम्मेदार हैं.कहते हैं कि मौलाना आज़ाद के शिक्षा मंत्री रहते कभी कधार प्रधानमंत्री नेहरू उनके आवास पर मशविरा करने आते थे,इतना बड़ा क़द था उनका.
आत्ममुग्ध हो गए थे
राजमोहन गांधी ने ‘पटेल ए लाइफ़’ में लिखा है, “कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर मौलाना आज़ाद का कार्यकाल 6 साल तक खिंच गया. दूसरे विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन में पूरी वर्किंग कमेटी के जेल में रहने के कारण ऐसा हुआ.” तो लगता तो यह भी है कि परिस्थितिवश लंबे समय तक कांग्रेस अध्यक्ष रहने के कारण वे अपने को लेकर कुछ आत्ममुग्ध हो गए थे.
विभाजन के विरोधी थे
मौलाना आज़ाद की मृत्यु के क़रीब 10 महीने के बाद इंडिया विन्स फ्रीडम जनवरी 1959 में छपी. पर पांडुलिपि के 30 पन्ने नहीं छापे गए, क्योंकि वे यही चाहते थे. उन्हें नेशनल आर्काइव्ज़, दिल्ली और कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी में रखवा दिया गया, ताकि उन्हें मौलाना आज़ाद की मौत के सन 1988 में 30 साल पूरा होने पर आत्मकथा के नए एडिशन के साथ जोड़कर छापा जाएगा.मौलाना आज़ाद इंडिया विन्स फ्रीडम में देश के विभाजन के लिए पंडित नेहरु की महत्वाकांक्षा, कृष्ण मेनन और तो और गांधी जी को भी ज़िम्मेदार ठहराते हैं. वे यहां तक कहते हैं कि क्या पानी का बंटवारा हो सकता है?
क़ौम भी माशाअल्लाह?
कुल मिला कर मौलाना आज़ाद ने वज़ारत लेकर न सिर्फ़ अपनी क़यादत को बल्कि पूरी मुस्लिम नेतृत्व को शिक्षा मंत्रालय की दिवारों में चुन दिया.तब से अब तक लीडरशिप के कई प्रयास हुए मगर क़यादत आज तक नहीं उभर पायी.क़ौम भी माशाअल्लाह.टूटी फूटी क़यादत को भी मानने को तैयार नहीं है.उसका मसीहा तो विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर लालू-मुलायम तक है.ममता,मायावती,नीतीश कुमार में भी वह अपना मसीहा तलाश करता है और अपने नेता की तौहीन करता है.जब आप अपनी ही लीडरशिप की इज़्ज़त नहीं करेंगे तो दूसरे सम्मान क्यों देने लगे?जम्हूरियत बिना लीडर की नहीं.जिस क़ौम का लीडर नहीं उसे लोकतंत्र की समझ नहीं.अपने अंदर मुसलमान लीडरशिप पैदा करें.सब मसअला का हल इसी में है.
मौलाना आज़ाद की सलाहियत(सियासत और क़यादत छोड़ कर)को सलाम